यह दुनिया नयी एक दुनिया है
बन्दे, तू इस नयी दुनिया का नया खुदा है
तेरी जय हो
तुम कौन हो?
जो भी हो, तुम जिन्न या भूत नहीं।
इस दुनिया में कहीं से आये नहीं।
किसी ने तुम्हें बना कर, गढ़ कर, यहां भेजा नहीं।
न तुम शून्य से प्रकटे हो।
तुम अपने माता-पिता के शरीर से उगे हो।
अपने माँ-बाप से ही तुम्हें शरीर मिला,
शरीर का विधान मिला,
प्राण मिले, आँख मिली, कान मिला,
सीने में दिल मिला, सिर में दिमाग़ मिला,
दिमाग में सोच मिली, मन में ‘मैं’ मिली -
केवल माँ-बाप से। उन्हें प्रणाम !
(2) और तुम्हारे माता-पिता?
वे अपने-अपने माता पिता के शरीरों से उगे थे।
वास्तव में तुम्हारे सीने की धड़कन
पीढ़ी-दर-पीढ़ी, पुश्त-दर-पुश्त,
अरबों सालों से लगातार धड़कती चली आ रही है।
तुम्हारी साँसों का सिलसिला युगों-युगों से जारी है।
तुम्हारे मन में बैठी ‘मैं’ भी अरबों साल बूढ़ी है।
तुम्हारा जीवन तुम्हारे पुरखों के जीवन का अगला चरण है,
उनसे अलग नहीं, उनसे जुदा नहीं ।
तुम्हारा अगला सवाल है,
तुम्हारे पहले-पहले पुरखे कब और कहाँ से आये थे?
बीसवीं सदी की साइंस को स्पष्ट संकेत मिले हैं
कि आज से तीन-चार अरब साल पहले,
मानो, चुटकी-भर माटी, एक बूँद पानी, एक फूँक हवा
और एक किरण धूप से,
एक बुलबुले की तरह, अनायास तुम्हारा गठन हुआ था
और तुम में एक चाबी-सी भर गयी थी,
यह चाबी अब टाले नहीं टलना चाहती,
मानो उसका अपना एक मन है।
वह पृथ्वी पर जीव की शुरुआत थी।
तुम्हारा पहला-पहला पुरखा, शायद, इस तरह प्रकट हुआ।
(4) और, जो तुम्हारा पहला-पहला पुरखा था
वही बाकी सभी प्राणियों का -
पेड़-पौधों, कीट-पतंगों और पशु-पक्षियों का -
पहला-पहला पुरखा था।
इक्कीसवीं सदी की साइंस को, आज की पृथ्वी पर,
पसरने वाला, रेंगने, चलने-फिरने और उड़ने वाला,
एक भी ऐसा प्राणी नहीं मिला
जो बाकी सब प्राणियों का रिश्तेदार न हो।
(5) तुम्हारे शुरुआती पुरखों के जो फासिल आज मिले हैं
उनसे पता चलता है कि वे प्राणी
तब बहुत छोटे, सरल और सूक्ष्म थे ।
छोटे इतने कि बिना माइक्रोस्कोप के दिखाई तक न दें।
और सरल इतने कि उनके न हाथ थे,
न पैर, न सिर, न मुंह,
मानो, उनका केवल पेट ही पेट था।
वे प्राणी बहुत क्षणिक भी थे -
कुछ ही मिनटों में वे खा-पी कर, और जवान हो कर,
एक से दो में बंट जाते । और अमर हो जाते।
लेकिन तब से अब तक तुम, पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
अनगिनत वक्तों में से गुज़रे हो,
बे-शुमार तूफानों-हादसों को तुमने झेला है।
हर बार तुम हज़ारों बहन-भाइयों में से एक-दो चुने गए,
और हर बार तुमने अपने को पहले से
अधिक सबल, सुगढ़, सजग और चतुर पाया है।
(6) तुम्हारे वे पुरखे पृथ्वी के जीववृक्ष का, मानो, तना थे।
उस तने में से शाखाऐं
और शाखाओं में से उप-शाखाएं फूटती रहीं,
और, एक दूसरे से अलग हो कर और बिछुड़ कर,
अपनी-अपनी बस्तियों में, अपनी-अपनी मजबूरियों
और अपनी-अपनी लाचारियों से झूझती हुई,
कभी मिटती और कभी फलती और फूलती रहीं,
नष्ट होने से बचती रहीं।
करते-करते बानरों की एक शाखा,
आज से कुछ लाख साल पहले, पूर्वी अफ्रीका के जंगलों में,
मनुष्य के रूप में विकसित हुई।
लेकिन मनुष्य रूप में तुम बहुत कमज़ोर और लाचार थे,
अध्-पक्के और अध्-कच्चे तुम्हारे बच्चे,
हिंसक पशुओं का बहुत आसान शिकार थे।
तुम्हारी शाखा समूल नष्ट होने के कगार पर खड़ी थी।
केवल वही परिवार बचे जो घने जंगल छोड़ कर
झाड़ीदार मैदानों में आ बसे
और उनमें से भी केवल वही बचे
जिन्हों ने लकड़ी, पत्थर और हड्डियों के औज़ार धारण किये।
इन औज़ारों की बदौलत तुम्हारी रक्षा हुई
और तुम जीवजगत के लीडर हो गए,
और, आज, दुनिया के खुदा हो गए हो। तुम्हें सलाम।
(8) हे अस्त्रधारी, हे शस्त्रधारी, हे धनुर्धारी
और हे यंत्रों-मन्त्रों और युक्तियों से युक्त महारथी,
आज तुम्हें पशु या बानर कहते हुए संकोच होता है।
लेकिन, क्या कहें, देवी-देवताओं की तुम्हारी कहानियां
सुन्दर हैं ज़रूर पर सच नहीं।
सच यह है कि ये कहानियां कहानियां हैं, इतिहास नहीं।
देवी-देवता तुम्हारे गढ़े हुए पुतले हैं, पुरखे नहीं,
तुम एक सहज सरल पशु हो, जानवर हो, बन्दर हो, बानर हो।
और तुम्हारा इतिहास पशुओं के इतिहास से अलग नहीं।
आज से केवल दस साल पहले तुम्हारे हाथ में मोबाइल नहीं था।
सौ साल पहले रेडियो-फ़ोन-टीवी भी नहीं था,
हज़ार साल पहले छपी किताब तक नहीं थी,
दस हज़ार साल पहले न सिर पर छत थी, न बदन पर कपडे थे,
एक लाख साल पहले तक तुम अफ्रीका से बाहर नहीं निकले थे,
एक करोड़ साल पहले पेड़ों पर तुम्हारा बसेरा था,
दस करोड़ साल पहले तुम चार पैरों पर चलने वाले चूहे थे।
इतनी जल्दी क्या से क्या हो गये,
यह शर्म की नहीं, वास्तव में गर्व की बात है।
(9) और मनुष्य शिशु के रूप में तुम आज भी
बहुत कमज़ोर और लाचार पैदा होते हो।
महीनो-साल लग जाते हैं तुम्हें खड़ा होने में।
लेकिन इस सफ़र में तुम कभी अकेले नहीं थे,
अलग या बे-सहारा नहीं थे।
माँ की गोद से, बाप की छत्र-छाया से,
बहन-भाइयों से, संगी-साथियों से,
घर-आंगन से, गली-मोहल्ले से,
गांव-नगर से, यानी कि मानव समाज से,
पहले दिन से जुड़े हुए थे।
समाज से ही तुम्हें भाषा मिली,
शब्द मिले, शब्दों के अर्थ मिले,
कई तरह के कौशल मिले, सूझ-बूझ मिली,
कलाएं मिलीं, कथाएं मिलीं, मान्यताएं मिलीं,
गीत मिले, मीत मिले, लाज-शर्म मिली,
हंसी मज़ाक मिला, अच्छे-बुरे की तमीज मिली,
अगर एक शब्द में कहें तो, मानवता मिली।
और तुम्हें यह मानवता मिली केवल समाज से।
मानव समाज की लाड़-भरी गोद को प्रणाम।
(10) आज तुम पैदल नहीं, निहत्थे नहीं, नंगे नहीं।
लाखों साल पहले वाले गूंगे, बहरे और अंधे नहीं।
आज तुम्हारे हाथों में अस्त्र हैं, शस्त्र हैं,
औज़ार हैं, हथियार हैं - अद्भुत टेक्नोलॉजी है।
तुम्हारे पैरों में पहिये हैं, आँखों पर ऐनक है,
कानों पर मोबाइल है, जुबान पर माइक है
और उँगलियों में रिमोट है।
इशारों ही इशारों में तुम इस कठ-पुतली दुनिया को
मन चाहे नाच नचा रहे हो।
तुम्हारे बनाये हुए हज़ारों नकली चाँद
पृथ्वी के आकाश में रास रचा रहे हैं।
तुम्हारे भेजे हुए छ: पहियों वाले रोबोट
पड़ोसी ग्रहों पर चल-फिर रहे हैं।
अंतरिक्ष में ठहराई हुई तुम्हारी दूरबीनें
ब्रह्माण्ड के कोने-कोने में तांक-झांक कर रही हैं।
यंत्रों की मदद से तुम, पलक झपकने में,
यहाँ भी हो, वहाँ भी हो,
मानो, एक साथ सब जगह मौजूद हो।
तुम मैन से सुपरमैन हो गए हो।
तुम्हारी दुनिया नयी एक दुनिया हो गई है,
इस दुनिया के तुम खुदा हो गये हो।
लेकिन याद रखो, तुम्हारी यह खुदाई प्राकृतिक नहीं,
तुम्हारे औज़ारों की देन है।
(नंगा और निहत्था मनुष्य तो न हाथी जैसा विशाल है,
न शेर जैसा शूरवीर और न मोर जैसा सुन्दर।
हंसों की उड़ानें, मधुमक्खियों के नृत्य, भौंरों की भावुकता
और चींटियों की सामाजिकता
प्रकृति से बेचारे मनुष्य को नहीं मिली। )
तुम्हारी शक्ति तुम्हारे औज़ारों की शक्ति है।
अपने को अन्य प्राणियों से श्रेष्ट मानने की भूल न करना।
(11) और, तुम्हारी साइंस?
तुम्हारी साइंस की रौशनी में अंधेरे छट रहे हैं।
छू -मन्त्र और जादू-टोने घट रहे हैं।
हर तरफ उजाला फैल गया है।
इतना प्रकाश है कि कुछ चूहे उसकी चकाचौंध से डर कर
गहरी बिलों में घुस गए हैं
और वहाँ बैठे-बैठे ‘आग-आग’ चिल्ला रहे हैं।
दूरियां सिमिट रही हैं। सीमाएं ढह रही हैं।
इस दुनिया में शुभ-अशुभ और अच्छे-बुरे
के भेद धुन्धले होते जा रहे हैं।
पुराने सभी पुराण और सस्कृतियां,
सभ्यताएं, कलाएं और कथाएं,
और बड़ी से बड़ी मान्यताएं,
मिथक बनती जा रही हैं।
और तुम्हारा खुद का कायाकल्प हो रहा है।
साइंस ने तुम्हें निरोग कर दिया है; तुम्हारी उमर लम्बी कर दी है।
तुम्हारी सोच को बदल दिया है। तुम पहले वाले तुम नहीं रहे।
और यह सब हुआ है तुम्हारी साइंस की बदौलत।
(12) जांत-पांत के भेद मिट रहे हैं।
धार्मिक पाखंडों में तुम्हारी आस्था कमज़ोर हो रही है।
अगले बीस-तीस सालों में तुम भूल जाओगे
कि तुम हिन्दू थे, मुस्लमान थे, बौद्ध थे, या ईसाई।
अगले तीस -चालीस सालों में तुम अपने को
हिंदी, चीनी, पाकी या अमरीकी भी नहीं बताओगे।
तुम पृथ्वी के नागरिक हो जाओगे।
(13) तुम्हारी जन-संख्या बढ़ रही है, इसमें संदेह नहीं,
लेकिन तुम्हारी साइंस और टेक्नोलोजी की बदौलत
अन्न-जल, सुख-सुविधाओं और सेवाओं का उत्पादन
और भी तेज़ी से बढ़ रहा है।
अगले चालीस-पचास सालों में
आबादी का बढ़ना, स्लो होते--होते, रुक जायेगा,
लेकिन उत्पादन का बढ़ना नहीं रुकेगा।
वह इतना बढ़ जायेगा कि तुम माला-माल हो जाओगे।
किसी आवश्यक वस्तु की कमी नहीं रहेगी
और सब झग़ड़े-फ़साद, छीना-झपटी ख़त्म हो जायेगी,
आज की माई-बाप सरकारें कल जन-सेवाएं हो जाएंगी।
पूरी मानव जाति आपस में घुल-मिल कर एक जुट हो जायेगी।
जो आज खिचड़ी है वह कल खीर हो जाएगी।
(14) लेकिन, हे मानव,ख़बरदार!
सूरज के आंगन में लुढ़कती हुई तुम्हारी नन्ही-सी पृथ्वी,
और उस पृथ्वी की गोद में बसे अति सूक्ष्म प्राणीजगत पर,
आज कई खतरे भी मंडरा रहे हैं।
बढ़ती हुई जन-संख्या अपने-आप में एक खतरा है।
प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है।
प्रदूषण के कारण तापमान चढ़ रहा है।
नदियां सूखती जा रही हैं।
पीने का पानी दुर्लभ और दुर्गम होता जा रहा है।
प्राणियों की हज़ारों प्रजातियां
देखते-देखते समूल नष्ट हो रही हैं।
पृथ्वी का जीवजगत् चरमर्रा रहा है।
कुछ पुराने लोग लोभ और भय से अंधे हो कर
आपस में लड़-मर रहे हैं।
एक-दूसरे का सर्वनाश करने के लिए
उन्होंने इतने बम बना लिए हैं कि
पृथ्वी की पूरी सतह को, एक बार नहीं,
कई बार जला कर राख कर दें।
इन खतरों से पृथ्वी की रक्षा करना
आज तुम्हारी जिम्मेदारी हो गयी है - केवल तुम्हारी।
(15) हे महा मानव,
तुमने अनगिनत संकटों को झेला है।
तुम्हारे पास अरबों पीढ़ियों का अनुभव है।
तुम में जीने की दृढ़ इच्छा है।
तुम संवेदनशील हो, विचारशील हो, दूरदर्शी हो।
तुम्हारे पास अद्भुत साइंस है, अतिकुशल टेक्नोलॉजी है।
पूरे पशुजगत में केवल तुम्ही एक पशु हो जो,
पेड़ों की तरह, अपना भोजन स्वयं उगाने लगे हो।
अक्सर वही खाते हो जो खुद उगाते हो या खुद पालते हो
और उतना खाते हो जितना खुद पैदा करते हो।
जंगली पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों को नष्ट करने से कतराते हो।
पृथ्वी के वातावरण को अनुकूल बनाये रखने
और पूरे प्राणीजगत की रक्षा करने में तुम सक्षम हो।
तुम्हें सलाम, तुम्हें शत शत प्रणाम।
(16) पिछली दो-तीन सदियों में यह दुनिया
नयी एक दुनिया हो गई है।
इस दुनिया की बाग-डोर तुम्हारे हाथों में है।
तुम इस दुनिया के नए खुदा हो।
आज तक तुम डरते रहे हो, बच-बच कर जीते रहे हो,
केवल अपनी रक्षा-भर करते रहे हो,
या बदलती परिस्थितियों के सांचों में अपने को ढालते रहे हो,
अब जीयो, जी भर कर जीयो,
जीने का भरपूर आनंद लो,
अपनी सन्तानों का पालन-पोषण करते हुए
अपने को अमर कर लो। अमिट कर लो।
और अन्य प्राणियों को भी जीवन दान दो;
पृथ्वी के प्राणीजगत की रक्षा करो;
पृथ्वी के वातावरण की रक्षा करो;
पूरी पृथ्वी को अपने आँचल की ओट में ले लो, भगवन।
तुम्हारी जय हो।
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About the Author: Baldev Raj Dawar is a Hindi writer. He is a columnist, TV panelist and author of many books. He writes about the new WORLD VIEW that is emerging from the womb of modern science. He was born in 1931, West Punjab. He retired from Indian Foreign Service (B) in 1989. His magnum opus, Baldev Geeta/Vigyan Geeta (1983), was hailed by Dr. Harivansh Rai Bachchan saying, ‘बलदेव गीता से बीसवीं सदी के अभिनव मस्तिष्क का निर्माण होगा। … धन्य हिंदी भाषा है जिस में बलदेव गीता लिखी गयी है’. Prof. S. Durlabhji said, 'Dawar is in the league of best popularizers of science of our times.' His latest published book is, Prithvi Mera Desh, Science Mera Dharm. Dawar, however, could not market his works extensively. A number of manuscripts remain unpublished. At the age of 84 now, he is in great hurry to spread his message.
Baldev Raj Dawar, Convener, Science Dharma; Mob. 9891552685;
e.mail: baldevraj.dawar@gmail.com
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